December 07, 2008 ऐसे ही इतवारी गुफ़्तगू[चर्चाकारः अनूप शुक्ल] [26 टिप्पणियाँ]
इतवार की शानदार सुबह में आपका एक बार फ़िर स्वागत है।
अब देखिये आप सब लोग टनाटन बिस्तरायमान होंगे और हमें बैठाये हैं कुर्सी पर। केतना नाइंसाफ़ी की बात है। है कि नहीं।
कल जब रात चर्चा किये तो पीडी कहते हैं- जरा मेरे आज के ब्लाग पोस्ट का एक लाइना बना दीजिये!
अब देखिये पीडी ब्लाग पोस्ट लिखते हैं जिसका शीर्षक है- क्या होगा इस देश का?
अब भला बताओ इसका क्या जबाब दिया जाये? देश का वही होगा जो हम चाहेंगे। जैसा देश वाले करेंगे वैसा ही देश बनेगा?
लेकिन हम आसान बात कहने लगते हैं- वही होगा जो मंजूरे खुदा होगा!
कविता जी की जायज शिकायत है-
हमारे एक दिन में चार चार पोस्ट आएँ तब भी लाईन में लगने नहीं पाते जी, ऐसा पूरे सप्ताह होता है,शिकायत भी नहीं ( चर्चाकारों में केवल अनूप जी ही को कह सकते हैं सो आपके बहाने एक दिन बोल दे पाए)।
बाकी मंडली से गुस्ताखी माफ़।
कविता की के ब्लाग पोस्ट का जिक्र अक्सर ही छूट जाता है। कभी खलता भी है लेकिन यह सच है। अपराध बोध कम करने के लिये कुछ कारणबाजी /बहाने बाजी ही हो जाये।
कविताजी असल में दस ब्लाग की मालकिन हैं। दस ब्लाग में अभी मैंने देखा कि सात खुले और बाकी आंख मूंदे हैं। सभी के सभी ब्लाग ’कापी प्रोटेक्टेड’ हैं। कापी प्रोटेक्टेड का चलन अभी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। डा.अमर कुमार, प्रत्यक्षा और अन्य तमाम साथी भी जिनका लिखा कभी कापी करके सबको पढ़ाने का मन करता है वह सब ताले में बंद है।
डा.अमरजी, कित्ता तो फ़न्नी बात है कि फ़ौज के युद्दाभ्यास की फोटो कहीं न कहीं से लाकर आप अपने ब्लाग पर सटा दिये और उस पर अपना ताला लगा दिये। कहीं कोई चुरा न ले। ये वैसा ही है भाई जान कि आप खलिहान से अनाज लाकर अपनी बखारी में जमा करके उस पर अलीगढ़ी ताला सटा दिये।
मुझे दूरगामी परिणाम पता नहीं लेकिन अगर आप सच में चाहते हैं कि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो तो आपको अपना लिखा सब कुछ सबके लिये सुलभ रखना चाहिये। आपका लेखन ऐसा हो कि दुनिया में लोग उसको नकल करके अपने यहां सजायें और पढ़ायें। यह भी देखिये कि आप जो लिख रहे हैं वह भी जाने-अनजाने कहीं से सीखा हुआ ही है।
यह मजेदार विरोधाभास है जी कि एक तरफ़ तो हम विकिपीडिया पर जानकारी के प्रचार-प्रसार में लगे हैं। अपने लेखन से पैसा कमाना हमारा उद्देश्य नहीं है और दूसरी तरफ़ अपने लिखे पर ताला ठोंके हैं। क्या इसीलिये अवधी कवि पढ़ीसजी लिखिन हैं-मेला मदार मां मुंह खोलि के सिन्नी बांटिन
ससुर का देख के घूंघट निकला डेढ़ हत्था।
उदाहरण के लिये बतायें। हमने तीन दिन पहले अपने ब्लाग पर लिखा-
क्या हर आदमी एक नौकुचिया ताल होता है! कभी पूरा का पूरा नहीं दिखता। ध्यान से देखो तो हर बार कुछ नया सा लगता है
इस पर ज्ञानजी की टिप्पणी थी-
सौ बातों की एक बात! आप वह लिख देते हैं, जो हम लिखना चाहते हैं!
अब हमारा कालर ऊंचा हो जाना चाहिये कि देखो ज्ञानजी जो लिखना चाहते हैं वह हम लिख देते हैं वे खाली टिपियाते रहते हैं( इसका यह भी मतलब हो सकता है कि हम ज्ञान जी के भोंपू हैं) लेकिन सच यह है कि यह नौकुचिया ताल वाली उपमा हमने किसी नैनीताली लेखक के संस्मरण में पता नहीं कब पढ़ी थी। लेखक ने अपने किसी मित्र के बारे में लिखते हुये लिखा था।
कहने का मतलब यह है कि हमारा जो भी सीखा हुआ है, जाना हुआ है और जिसे हम आज सबको बताते हैं वह भी तो कहीं से पाया हुआ है। फ़िर उसे प्रस्तुत करते हुये इत्ती पर्दानशींनी काहे? दुनिया के सर्वाधिक मुक्त माध्यम में ताले! ये विरोधाभास है क्या?
अरे बात कविताजी की हो रही और कहां से और सब गाना गाने लगे। कविता जी ने अपने इस लेख के माध्यम से स्पष्टीकरण दिया है। उसमें जो अनूप जी हैं वे हमारे नामाराशि हैं जो हमारी ही तरह अमेरिका का काम संभालते हैं। बड़े हैं हमसे इसलिये बड़ी जगह लगाया गया है उनको। आजकल लिखना-विखना कम है उनका।
वागर्थ में कविताजी ने तीन दिवसीय कवि सम्मेलन की जानकारी दी है। रपट में उनकी फोटो भी हैं सुन्दर सी। लेकिन हम आपको दिखा न पायेंगे यहां क्योंकि ब्लाग कापी प्रोटेक्टेड है।
स्त्री विमर्श पर यह कविता एक बेहतरीन कविता है। इसके अंश मैं आपको पढ़वा नहीं सकता। कैसे पढ़वाऊं? ब्लाग कापी प्रोटेक्टेड है।
ब्लागिंग का इत्ते दिन का मूलमंत्र मुझे जो समझ आया वह यह है आपकी पहचान आपके एक ब्लाग से होती है। एक लेखक-एक ब्लाग। जित्ते ज्यादा ब्लाग होंगे उत्ती आपकी पहचान के बारे में भ्रम होंगे और पाठक को उलझन।
दूसरी बात यह कि ब्लागिंग एक ऐसी विधा है जिसमें लोग लेखक और पाठक का सीधा संबंध देखना चाहते हैं। कोई माध्यम नहीं। कितने भी अच्छे लेखक की रचना आप अपने ब्लाग पर पेश करें, आपको ’ रचना पढ़वाने के लिये शुक्रिया’ इससे ज्यादा टिप्पणी की आशा नहीं करनी चाहिये। दूसरों की मास्टरपीस रचनाओं से ज्यादा एक जान-पहचान वाले ब्लागर के अनगढ़ लेखन में पाठकों की ज्यादा रुचि और जुड़ाव होता है। यह ऐसा ही है कि घर में कही एक बच्चे की थोड़ी समझ वाली बात आपको ज्यादा आनंदित करे बनिस्बत किसी महापुरुष के आप्तवचन के।
अल्लेव। हमारा समय हमारे हाथ से सरक रहा है और हम खुटुर-पुटुर कर रहे हैं। दफ़्तर जाना है जी आज भी। चलते-चलते आप आलोक पुराणिक का यह लेख बांच लीजिये। आलोक कहते हैं:
भारतीयों को उधारी के मामले में ज्यादा समझदारी की जरुरत है। क्योंकि अमेरिका में पूरा चौपट होने के बाद भी व्यक्ति आश्वस्त रह सकता है कि खाने पीने और न्यूनतम जरुरतों का जुगाड़ वहां की सरकार करेगी। इतनी सामाजिक सुरक्षा वहां है। पर यहां ऐसी कोई भी सुरक्षा कहीं नहीं है। इसलिए यहां एक बार क्रेडिट कार्ड कंपनी के, बैंकों के बंदे घर पर वसूली के आने लगें, तो सिर्फ सड़क पर आने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता। पैरों तले खिसकती जमीन के दौर में अगर यह सबक कई लोग सीख पायें, तो यह संकट भी सार्थक माना जा सकता है।
पूजा उपाध्याय की परेशानी भी देखियेगा जरा-
एक दिन भी
जाने तुम्हारे लौट आने तक
जो surprise गिफ्ट खरीदने निकली थी
चिथड़े हो चुका हो...
किसी आतंकवादी को कहाँ मालूम होगा
मेरा जन्मदिन, या वर्षगांठ
उनके प्लान्स तो बहुत पहले से बनते हैं
३०० लोग में किसी न किसी का तो हो ही सकता है
तारीखों से क्या फर्क पड़ता है...
शब्दों में समेट देती हूँ
ढेर सारा प्यार
इन्हें खोल के देख लेना
मैं तुम्हें कविता में मिलूंगी...
फ़िलहाल इत्ता ही। आज इत्ता ही लिख पाये। कल की चर्चा कविताजी करेंगी। तब तक आप क्या करेंगे बैठकर? टिपियाइये। यहां,वहां जहां मन करे तहां!
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चर्चा तो खैर मान लिया अच्छी है . पर फुरसतिया ब्राण्ड कब छपेगा ?
वाह! अच्छा बहाना ढूंढ़ लिया अनूप जी आपने, बचने का। बस कापीराइट कह दिया और चलते बने। भई, ये भी कोई बात हुई, कापीराइट तो चोरों से बचाव के लिए है ना कि आप जैसे साहू के लिए। है ना कविताजी और अमरजी?
अपने लिखे को प्रचारित-प्रसारित करने के लिये Microsoft की Policy अपनानी चाहिये, जितना ज्यादा नकल होता है, पायरेटेड सॉफ्टवेर बनता है बनने दो, जाने-अनजाने वह Microsoft का ही प्रचार कर रहे हैं और उससे जुडे हैं। अपने सॉफ्टवेर की लोगों को इतनी आदत डाल दो कि क्या पायरेटेड और क्या ओरिजिनल सब एक बराबर, जिसके बिना लोगों का काम न चले। यही वह पॉलिसी रही जिसके कारण आज ज्यादातर कम्प्यूटर Microsoft based हैं।
हाँ थोडा कंट्रोल जरूरी है ताकि कोई आपके लिखे को सीधे-सीधे अपने नाम से न छाप डाले।
बहुत ही सुंदर विवेचना. मज़ा आ गया.
वाह..जबर्दस्त ..डेढ़ दिन में तीन चर्चा! आपको अपने फुरसतिया फार्म में लौटा देखकर मजा आ गया। आपने बहुत अच्छा किया कि ताई के जन्मदिन पर ताउ की बेइज्जती खराब होने से बचा ली।
''अगर आप सच में चाहते हैं कि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो तो आपको अपना लिखा सब कुछ सबके लिये सुलभ रखना चाहिये।''
हम भी इसी मत के मतदाता हैं। वैसे भी क्या लेकर आएं हैं और क्या लेकर जाएंगे :)
ज्ञान जी टिप्पणी के माध्यम से सूत्र-वाक्य लिख दिया करते हैं, और हम उसी सूत्र-वाक्य का सूत्र पकड़कर बहुत दूर तक खींचे चले जाते हैं. कालर उंचा करें, या थोड़ी देर सोच लें, यह तो ब्लॉगर की प्रकृति पर निर्भर है.
अनूप जी कालर उंचा कर सकते हैं, सामर्थ्यवान हैं; हम तो कालर बचाने के फेरे पड़ जाते हैं .
बिलकुल ठीक कहा आपने - 'आप जो लिख रहे हैं वह भी जाने-अनजाने कहीं से सीखा हुआ ही है।' अभी तो हमारे प्रयास होने चाहिए कि ब्लाग सामग्री अखबारों में नियमित रूप से स्थान पाए । इस हेतु 'जो चाहे सो आवे-जितना चाहे, उतना पावे' वाली नीति ही कामयाब रणनीति होगी । कहा भी है -
सुरसती के भण्डार की बडी अपूरब बात ।
ज्यों खरचे त्यों-त्यों बढे, बिन खरचे घट जात ।।
इसे बढाने के लिए खर्च करना ही एकमात्र उपाय है ।
ब्लॉग चर्चा में लॉक चर्चा..एक बार को कुछा पुरानी चर्चाऐं याद हो आई.
शुक्लजी , आज रविवार को तो फुरसतिया स्टाईल में अच्छा ज्ञान प्राप्त हुआ है ! ये वाक्य हँसी नही रुकने दे रहा है
"कविताजी असल में दस ब्लाग की मालकिन हैं। "
आप कहां कहाँ से लाते हैं ऐसे ऐसे डायलोग के आईडिया ? आपकी इसी स्टाईल ने तो "एक लाईना" का मुरीद बना रक्खा है सबको ! अब एक बार और पढ़के निकलते हैं यहाँ से !
रामराम !
ताले का कोई महत्व भी होता है क्या ? मैं स्वयं ही नहीं जानता, फिर भी यह लगा तो है, ही ?
सही है, क्या लेकर आये हैं, क्या लेकर जायेंगे .. और मैं तो अपना सबकुछ लगभग दान कर चुका हूँ !
अब तो समेटने की तैयारी है , फिर ?
फिर.. बीते हुये समय और श्रम को लौटाया तो नहीं जा सकता, न ?
पर, यही मेरे कुछ तो है, के साथ हो चुका है..
कैसा लगता है, जब आप एक दिन सुबह उठ कर पाते हैं,
कि आपके अपने ब्लाग का एडमिनिट्रेटिव प्रिविलेज़ आपके पास है ही नहीं !
आप अपना ही कुछ भी एडिट कर सकने में अक्षम हैं, तो ?
यह हुआ है, और मैंने सहायता के लिये कई दिग्गज़ों से गुहार लगायी,
किसी ने ( दो को छोड़ कर ) उत्तर देना भी उचित न समझा ।
इन दो सदाशयी महापुरुषों के उत्तर में,
एक की कुटिल सलाह थी, कि जो चला गया उसे भूल जाओ ।
महीनों ख़ाक छान कर जुटाये गये जुगाड़ से आपने अपना घर सजाया,
और वह भी आपके नियंत्रण से निकल जाये, तो ?
ख़ैर, मैंने इसी नाम से दूसरा 'कुछ तो.. ' खड़ा कर तो लिया है,
पर इस हताशा, कुंठा और आक्रोश को विस्मृत कर पाना संप्रति कठिन तो है ही !
मेरा लिखा कोई इतना कीमती भी नहीं है,
न ही, यहाँ प्रकाशित किसी मैटर की कोई कामर्सियल वैल्यू है,
पर इस प्रकार की शरारतों का प्रतिकार या रोकथाम का जरिया कोई दिग्गज़ बताये..
इस प्रकार ताला लगाना, मुझे भी नहीं अच्छा लग रहा है..
शुकुल महाराज़ ने बहुत माकूल और चिरप्रतीक्षित मुद्दा जब उठाया ही है,
तो, बात आगे बढ़ायी जानी चाहिये ।
वैसे ज़िंग के उपयोग से, कोई भी वेबपृष्ठ यहाँ आसानी से सुलभ करवाया जा सकता है !
आज यह प्रतिटिप्पणी नहीं, बल्कि प्रतिवेदन है !
मज़ेदार,
एक बात, जो रही जा रही थी..
क्या चर्चित होने के लिये केवल इसी बिन्दु पर कोई ज़ोखिम लेना उचित होगा ?
चर्चाकार ने जो पढ़ा.. या जो उसे अच्छा लगा,
उस पर अपना मत-विमर्श और लिंक देना ही पर्याप्त नहीं होगा, क्या ?
चाहने वाले या आकर्षक विषय होने पर पाठक स्वतः ही जुड़ेंगे ।
यहाँ पर यह उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा,
कि चिट्ठाजगत के चाल-ढाल को मन का वहम मान कर टालता रहा..
पर, कल के अपने साप्ताहिक अवकाश का पूरा दिन मैंने केवल चिट्ठाजगत के आब्ज़र्वेशन को ही समर्पित कर दिया !
हर दो घंटे पर लिया गया ' स्क्रीनशाट ' है, मेरे पास !
मात्र 10 घंटों में मेरी पोस्ट धड़ाधड़ ( ? ) टिप्पणियों.. और धड़ाधड़ (??) पठन से गायब !
जबकि, तीन दिन पुरानी कई पोस्ट देर रात तक, या कहिये प्रातः 2.30 तक शोभायमान रहीं !
क्या यह महज़ संयोग है ?
नहींऽऽऽ.. यह मैनोवियर्ड इंज़ीनीयरिंग है, जी !
और मैं डाक्टर से B.Tech हो कर बिस्तरायमान होने चल दिया ।
B.Tech बोले तो, ब्रेन टेक्नीकली इकोईंग ( Brain Technically Echoing ) !
अनाप शनाप निःशुल्क सेवा के बदले, इसे निष्पक्ष रूप से चलाने के लिये कोई शुल्क रख लो, भाई !
कुछ नहीं, तो PayPal Donation का विकल्प तो है ही ?
मैं हिन्दी ब्लागिंग में कोई क्रांति नहीं लाने जा रहा..
पर, इसके पुरोधाओं और पंचायत के सम्मुख नारा तो लगा सकता हूँ, न ?
मूझे विश्वास है, कि लोकतंत्र पर पोस्ट लिखने वाले इसमें यकीन भी रखते होंगे !
अब, छोड़िये.. जाने भी दीजिये.. जैसे चलता है, चलने दीजिये !
आधे से ज्यादा तो रह ही गया था :)
अनूप जी को धन्यवाद कि उन्होंने सुध ली और सुध लेने के साथ साथ सभी के लिए अवसर उपलब्ध करवाया कि करणीय अकरणीय की मीमांसा की जा सके। अब सच तो ईश्वर जाने पर हमें तो अच्छी खिंचाई लग रही है।
१) यदि बात ताला लगाने,न लगाने की है तो वे सब इसका अर्थ बेहतर बता सकते हैं जिनकी पूरी की पूरी रचनाएँ लोगों ने अपने नाम छाप लीं। पुस्तक से कोई उठाकर प्रयोग करता है तो पता चल जाने की संभावना उतनी क्षीण नहीं होती क्यॊंकि पुस्तक का प्रसार ज्ञात -अज्ञात तक उतनी विशदता से नहीं होता, जितना नेट का। हाँ, हम बातचीत,सम्वाद आदि ब्लॊग पर लिख रहे हों तो चिन्ता नहीं रहती, चिन्ता होती है - सृजनात्मक साहित्य की चोरी की। वे सब तर्क जो टिप्पणियों में सुझाए गए हैं, उनसे भी बखूबी परिचित हैं,तब भी यदि कोई अपनी निश्चिन्तता के लिए ऐसा प्रावधान करता है तो उसमें अनौचित्य तो नहीं प्रतीत होता। यदि उसका कोई खामियाजा है( उसकी प्रति यहाँ या कहीं नहीं दिखाई जा सकती आदि) तो वह भी सिर-माथे। और यदि कोई बन्धु - बान्धव इस लिए टिप्पणी करना या नोटिस लेना नहीं चाह्ते कि क्योंकि वहाँ ताला लगा है तो भी स्वीकार्य। मुझे नोटिस न लेने वालों से कोई शिकायत नहीं, न ही टिप्पणी की संख्या से गिला। बात केवल अनूप जी को सम्बोधित थी व नोटिस की अपेक्षा भी उन्हीं से थी। मेरे लिए ब्लॊगलेखन शौक नहीं,न ही छपास पूरी करने का मंच, न ही लोकप्रियता का सरल पथ। मेरे तईं यह मेरा सामाजिक दायित्व है। अपनी परम्परा से प्राप्त, आचार्यों व माता पिता के दाय का ऋण उतारने के माध्यम के रूप में इस संसाधन का उपयोग आने वाली पीढ़ियों के लिए नेट पर गुणवत्तापूर्ण सामग्री का संचयन कर के जाने की चाह ही इसका मूल है; जिस से कि हमारा पितृऋण व आचार्य ऋण चुकाने का किंचित प्रयास संभव हो।
वैसे इन सब बातों को कहने का कोई औचित्य नहीं है, किन्तु विषय उठने से स्पष्टीकरण दे देना अनिवार्य लगा।
चीजें व स्थितियाँ और बातें और भी हैं,पर .. । खैर छोड़िए। सैंकड़ों लोगों, वरन् हजारों तक को तो स्वयं मैं अपने ब्लॊग्स की प्रत्येक सामग्री यथावत् पोस्ट करती हूँ। मेरा अपना समूह व अन्य भी लगभग १२- १५ समूह के मित्र इसे जानते हैं...
२) मैं तो सभी के ब्लॊग पर उनकी पोस्ट को चिठ्ठाजगत् और ब्लॊगवाणी के माध्यम से ही जाती हूँ और चिट्ठाचर्चा पर पधारने वाले या उपस्थित सभी के ब्लॊग पर उनके नाम को क्लिक करके।
कापी प्रोटेक्टेड ब्लॉग के फायदे भी हैं और नुक्सान भी। असल में पोस्ट के किसी अंश को कापी प्रोटेक्टेड किया जा सकने की तकनीक हो तो अच्छा रहे। वह शायद एक समझौतापरक समाधान हो।
पर जो है, सो है!
और हां, कविता जी के ब्लॉग्स पर इतनी जावास्क्रिप्ट है कि खुलने में बहुत समय लगता है। मसलन "हिन्दी भारत" खुलने में १ मिनट ७ सेकेण्ड लगे। चिठ्ठाचर्चा खुलने में ७.८ सेकेण्ड!
बहुत सारी बातें जो कही जा सकती थीं आप ने कह दी हैं और शेष रही टिप्पणीकारों ने। हिन्दी का भला तो इसी में है कि हिन्दी का समूचा लेखन खुला रखा जाए। कोई अपने नाम से भी हमारा लिखा छाप दे तो उसका क्या बिगड़ जाएगा और क्या बन जाएगा? पर कम से कम हिन्दी को अन्य विश्वभाषाओं जितना स्थान प्राप्त कर लेने तक तो यह सुविधा उपलब्ध रहनी चाहिए। फिर कॉपी करने की सुविधा बंद हो जाने से तो लिखने वाले ये मेरा, तेरा नहीं के विवाद ही समाप्त हो जाएंगे और उन का मजा भी। कुछ तो ऐसा भी चलता रहना चाहिए, विरासत समझ कर ही सही। फिर जरा हम जैसे वकीलों के पेशे का भी ख्याल तो रखें। हमें मुवक्किल कहाँ से मिलेंगे? ब्लाग से तो कमाई होने से रही।
इति श्री ताला चर्चा !
अब आपलोग चलिये.. चलिये,
ऎसा कुछ नहीं हुआ है..
आप सब अपने अपने ब्लाग पर चलिये
जाकर कुछ सार्थक लिखिये-पढ़िये..
लंतरानी फ़ेंक कर टिप्पणी बटोरने का मोह छोड़िये ।
चर्चित न हुये, तो क्या आपके ब्लाग का अस्तित्व मिट जायेगा ?
अग़र अपना ही मोहल्ला शरीफ़ न हुआ,
तो टिप्पणीकार ब्लागर को सतायेगा
और चर्चाकार ? वह बेचारा अल्ल्सुबह ताला-पुराण लिखेगा,
उसकी भी मज़बूरी समझें, वह स्वांतः सुखाय टाइम खोटी कर रहा है..
हर ब्लागर और हर पोस्ट को शामिल किये जाने की अपेक्षा ही क्यों की जाये ?
बस, जाकर कुछ ऎसा उछालिये, कि आप भी चर्चा में दिखें..
बस्स, यही तो ? सो, चलिये चलिये.... मौज़ मत लीजिये
अपने अपने ब्लाग पर जाकर पोस्ट लिखिये !
समीर भाई की चुटकी में क्या है, यह मैं छान आया हूँ
पर, ज्ञानजी के ' जो है.. सो है.. ' पर गौर किया जाये !
जाते जाते, कृपया यह भी सुनिश्चित कर लें,
कि आपकी पसंदीदा किताब-पत्रिका आपके पिछवाड़े ही उपलब्ध हो
और, डेढ़ किलोमीटर चल कर लेने जाना न पड़े..
जिसमें 2 मिनट 54 सेकेन्ड जाया होते हैं !
बहुत बढ़िया चिट्ठाचर्चा. चिट्ठों से जुड़ी हुई अन्य महत्वपूर्ण बातों पर बढ़िया चर्चा हुई.
सतीश पंचम said... @ December 07, 2008 10:41 AM
अपने लिखे को प्रचारित-प्रसारित करने के लिये Microsoft की Policy अपनानी चाहिये, जितना ज्यादा नकल होता है, पायरेटेड सॉफ्टवेर बनता है बनने दो, जाने-अनजाने वह Microsoft का ही प्रचार कर रहे हैं और उससे जुडे हैं।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said... @ December 07, 2008 6:00 PM
बहुत सारी बातें जो कही जा सकती थीं आप ने कह दी हैं और शेष रही टिप्पणीकारों ने। हिन्दी का भला तो इसी में है कि हिन्दी का समूचा लेखन खुला रखा जाए।
कामयाब रणनीति होगी । कहा भी है -
विष्णु बैरागी said... @ December 07, 2008 11:40 AM
सुरसती के भण्डार की बडी अपूरब बात ।
ज्यों खरचे त्यों-त्यों बढे, बिन खरचे घट जात ।।
इसे बढाने के लिए खर्च करना ही एकमात्र उपाय है ।
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प्रचारित-प्रसारित का उद्देश्य और हिन्दी के भले का उद्देश्य दो नितान्त अलग चीजें हैं, क्योंकि प्रचार- प्रसार के तीन बिन्दु हो अक्ते हैं- अपना प्रचार-प्रसार, भाषा का प्रचार-प्रसार और विचार का प्रसार-प्रचार फिर शैली और आगे भी उपादान कई मिल जाएँगे।
भाषा का प्रचार और भाषा का भला उसके खुल्ला छोड़ने से अधिक उसके लिए समर्पित होकर अपना जीवन देने में है। हँसी आती है उन लोगों पर जो अपने किसी भी कोटि के लेखन को (भले ही शौकिया या विवशता)और/या भाषा के उपयोग तक ( भले ही वे अध्यापन कर रहे हों) को हिन्दी की सेवा और भले के नाम से पुकारते हैं। सेवा और भला तो कोई महर्षि दयानन्द,गान्धी,महावीरप्रसाद द्विवेदी,निराला,प्रेमचन्द जैसे ही कर सकते हैं। सब अपनाअपना काम धन्धा छोड़ कर सारे व्यक्तिगत जीवन के दायित्व को कमतर मान कर जीवन इसी मे निस्स्वार्थ भाव से (न धन,न प्रचार न पुरस्कार)इसमें खपाएँ तब तो भला करने वाले और सेवा करने वाले के रूप में दम्भ भी किया जाए। वरना ये बातें निराला या रामविलास या महावीर प्रसाद जैसों को ही शोभती हैं।
सरस्वती के भंडार की अपूरब बात से पहले सम्सार के मूल तत्व चिन्तक कह गए थे -
विद्या विवादाय धनमदाय, शक्ति परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर्विपरीतमेतद्, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
विद्या का प्रसार करने का क्या अर्थ होता है- यह कोई कहने की बात नहीं, सबके लिए उसे उपलब्ध करवाना - तन,मन धन से।
और पढ़ने के लिए ब्लॊग खुले हुए हैं किसी के लिए अनुपलब्ध नहीं हैं। हाँ, कोई उस सरस्वती के साथ व्यभिचार न करे इसकी चिन्ता भी मुझे ही करनी है। किसी के दरबार में गुहार लगाने नहीं जाना।
केवल उनकी कॊपी ही नहीं हो सकती न? तो क्या? लिंक से कभी भी कोई भी आए-जाए। कौन पहरेदार सरस्वती के साधकों को रोकता है? रोका तो चोरों को ही केवल जा रहा है।चोरी की घटनाओं से बचने के किसी भी प्रयास में सहयोग देने व ऐसी घटनाओं को प्रतिबन्धित करने या उनका निराकरण/निन्दा करने की अपेक्षा सभी का लेखक को ही लतियाना जरा मेरी तो बुद्धि के ऊपर से गुजर जाने वाले चीज है। अपने अल्पमति होने को कोसती हूँ, आप भी सभी मिल कर कोसिए। अवसर मिला है तो चूकना क्यों भला?
और ‘बाय द वे’ २ ब्लॊग ऐसे हैं (संहिता व अथ) वे सदा से खुल्ले ही धरे हैं।
बात तो आपने सही उठाई है, पर लोग कई बार कॉपी कर लेते हैं और नाम तक नहीं देते. मैंने अपनी लिखी कविता किसी की ऑरकुट प्रोफाइल में देखी, संदेश भी छोड़ा कि आपने मेरी कविता छापी है बिना मेरी अनुमति के, उसे हटा दीजिये. मगर थेथर थे, कोई असर नहीं हुआ. अब कॉपीराइट का उल्लंघन हो तो क्या कर सकते हैं, सिवाए गुस्सा होने के.
वैसे अभी तक कॉपी प्रोटेक्ट लगाया तो नहीं है पर सोच रही हूँ की लगा दूँ. अच्छी लगी आज की चर्चा.
सच ही कभी-कभी ऐसा होता है कि बात निकलती है तो दूर तलक चली जाती है. चिट्ठों को चर्चा में शामिल न किए जाने की आपसी बात के साथ भी कुछ यही हुआ लगता है.
इसीलिए इस चर्चा में कई ऐसे मुद्दे निकल आए जिन्हें व्यक्तिगत सन्दर्भों से अलग रखकर भी देखा जाना चाहिए.
ब्लॉग की सामग्री की सर्वसुलभता की वकालत में दम है. लेकिन प्रतिलिपि पर प्रतिबन्ध इस सर्वसुलभता को बाधित नहीं करता. यदि चर्चाकार सचमुच चर्चा में ऐसे चिट्ठों को सम्मिलित करना चाहते तो लिंक देकर अपनी टिप्पणी दे सकते थे. उल्लेख न कर पाने या न करने का कारण प्रतिलिपि पर प्रतिबन्ध को बताना लीपापोती करने जैसा है. एक मीठी सी चुटकी भरी शिकायत के जवाब में चिट्ठाकार को अपनी सामग्री की सुरक्षा जैसे सही कार्य के लिए धिक्कारने लगना एक साधारण पाठक के गले नहीं उतरता . भला कापीराइट की व्यवस्था नेट पर इतनी अवांछित कैसे हो सकती है और इससे हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बाधा कैसे आ सकती है.
और हाँ ,उद्धृत करने और चुराने में फर्क होता है.
एक व्यक्ति को एक ही ब्लॉग का मालिक होना चाहिए, यह मत नितांत व्यक्तिगत है.अनेक स्थितियों में इसके अपवाद सम्भव हैं. इसे नियम की तरह थोपना उचित नही प्रतीत होता.
हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार के लिए अपने लेखन के अतिरिक्त कालजयी रचनाकारों को श्रमपूर्वक नेट पर लाना कोई छोटी साधना नहीं.
इसीप्रकार अपने ब्लॉग को औरों के लेखन के लिए भी [ चिट्टाचर्चा की तरह ]उपलब्ध कराने को इस माध्यम के जनतांत्रिक स्वरूप के विस्तार की तरह देखा जा सकता है .
वाचालता के लिए क्षमा याचना सहित
आपका
-ऋषभ
I have been surprised to read some of the comments here.
I would think that it is more that obvious for someone to be in favour of the saftey of someone's personal work and not promote infringement of copyrights and related safeguarding standards, moreover, labelling it as a means of 'knowledge sharing' in the benefit of the promotion of the root thought is rather quite a bizzare thought.
Okay, the debate must go on till we yield to a general consistence !
I really admire the much awaited provocation from Anup Ji,
albeit he did so to defend his lapses, which never were really his liability.
But we, the labelled possessive bloggers will certainely continue to protect our work, be it rubbish or worst than rubbish !
I believe that, it should not make any difference by ourselves being outcasted from ' Charcha, ' to any serious reader
But we, the labelled possessive bloggers will certainely continue to protect our work, be it rubbish or worst than rubbish !
I advocate your pointof view
I believe that, it should not make any difference by ourselves being outcasted from ' Charcha, ' to any serious reader
Who cares really , check the counter statistics and see how many came to your blog thru charcha . links are there but who really clicks thru them to go to the blog
and in any case the charcha is always limited for few loved ones of the charchakar
and between the sahitiykaar , patrkaar , the so called intelligent , the promoters of literature written by their family members and the elite bloggers who want " illetrate bloggers me included " to read "better things"
the common blogger does not really care and with such a "intense debate " even the regular " wah wah kya charcha haen brigade " is missing !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
अरे प्रत्यक्षा भी 'तालाबंद' गिरोह में गईं... ऐ तो नया समाचार हुआ।
वैसे किसी से जबरिया ताला खुलवाना या इसका तकादा करना भी ठीक तो नहीं ही है। सो लगता है कि ये तो नूंहहे चाल्लेगी।
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