मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

ताकि सनद रहे - 3

December 09, 2008


[चर्चाकारः अनूप शुक्ल] [29 टिप्पणियाँ]

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खामोशी में भी लफ्ज़ ढूंढ लिए उसने
वो भी सुना उसने जो कहा नही .....

ये गलतफहमिया भी अजीब होती है


यह त्रिवेणी डा. अनुराग ने तब लिखी जब कार में मूंगफ़ली खाने पर ट्रैफ़िक हवलदार ने उनसे पूछा -ये क्या हो रहा है।

नीरज गोस्वामी शायद ऐसे ही किन्हीं हालातों में फ़ूल खिला रहे हैं वह भी काटों के बीच!:
काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है



इसी कड़ी में उन्मुक्तजी आपको कैक्टस का बगीचा घुमा रहे हैं।

साहित्य शिल्पी में बाबा त्रिलोचन को उनकी पुण्य तिथि परयाद किया गया है। उनकी कविताओं के साथ।

अभय वीडियो भड़ास पेश करते हैं। इसमें घूमता हुआ पंखा है, हिलते हुये पैर हैं, उठक-बैठक करते अभय हैं और भड़ास तो खैर है ही!

मनविंदर उदास और समझदार की गुफ़्तगू पेश करती हैं:
उदास को समझदार ने कहा
उदास न हो
जरा ऊपर देख
प्यार की झालरों पर है तेरा नाम
उसकी छुहन में है तेरी ही खुश्बू!


रवि भोपाली आज बता रहे हैं कि अगर चिठेरे मंदी की चपेट में आ गये हों तो कैसे बचें? क्या करें?। उनका सुझाया उपाय

चार पुराने ब्लॉग बंद करें, छ: नए खोलें – मुफ़्त के ब्लॉगर-वर्डप्रेस है ना! माना, मंदी की मार सर्वत्र है, मगर ब्लॉग खोलने बंद करने पर नहीं!



तो आप तुरंत उपयोग में लाना शुरू कर सकते हैं।

दुनिया में पसरी मंदी से बचने के लिये बबाल जी बिगबुल की आरती पेश करते हैं:
शेयर बाज़ार के राजा, कहाँ खो गए तुम ?
स्वामी कहाँ खो गए तुम ?
बजा सभी का बाजा --२, और सो गए तुम !!
--- हुम्म जय बिगबुल चढ़ता ....


राजकिशोर जी का आलेख चोखेरबाली में पोस्ट हुआ। राजकिशोर जी लिखते हैं:

कुल मिला कर स्थिति बहुत ही पेचीदा है। पुरुष की ओर से पेच ज्यादा हैं, पर कभी-कभी स्त्री भी पेच पैदा करती है। यह सच है कि अपने स्त्रीत्व का शोषण करनेवाली स्त्रियों की संख्या एक प्रतिशत भी नहीं होगी, पर यह धारणा गलत नहीं है कि एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है। यहां मामला तालाब को गंदा बनाने की नहीं, उसकी छवि बिगाड़ने का है। इसलिए 'सब धान तेइस पसेरी' का सोच एकांगी है। फिर भी, स्त्रियों का दोष कम करके आंका जाना चाहिए, क्योंकि वे जन्म से ही अन्याय और भेदभाव का शिकार होती हैं तथा अनुचित तरीके से अवैध लाभ हासिल करने के लालच में पड़ जाती हैं। ये अगर चांद की कामना न करें, तो इनकी गरिमा को कौन ठेस पहुंचा सकता है?


आर.अनुराधा राजकिशोर जी से असहमति जताती हैं:
"एक बात तो तय है। किसी भी स्त्री से उसकी सहमति के बगैर संबंध नहीं बनाया जा सकता।"


"ये अगर चांद की कामना न करें, तो इनकी गरिमा को कौन ठेस पहुंचा सकता है?"
इन दो वक्तव्यों से मैं कतई असहमत हूं। राजकिशोर जी, दोबारा सोचें, पीड़ित के नजरिए से। आज के समय में किसी के लिए दारू-सिगरेट लाने और सेक्शुअल हरासमेंट में कोई फर्क नहीं रह गया है क्या? अगर ऐसा है, तो मैं सायद समय से बहुत पीछे हूं।, और इसी बिनाह पर मेरे इस नजरिए के लिए माफ करें।



लेकिन सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी कहना है कि
राजकिशोर जी ने बहुत सन्तुलित ढंग से अपनी बात रखी है। कोई भी बात ऐसी नहीं है जिससे नारी जाति के बारे में कोई अनादर झलकता हो। लेकिन जिन बातों का उदाहरण दिया गया है उनमें सच्चाई से इन्कार करना एक विशेष पूर्वाग्रह को परिलक्षित करता है।

अच्छे और बुरे लोग हर स्थान, जाति, धर्म और लिंग में पाये जाते हैं। सबका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। न ही लेखक की ऐसी मन्शा लगती है। जिस प्रकार पुरुष वर्ग के बारे में जितनी नकारात्मक बातें कुछ नारीवादी लेखिकाएं कहती हैं वे सभी पुरुषों के लिए सही नहीं हो सकती उसी प्रकार यहाँ कही गयी बात सभी महिलाओं के लिए नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ऐसे मामलों का अस्तित्व ही नहीं है।

लेखक ने एक सच्चाई की ओर इशारा किया है जो कत्तई प्रिय नहीं है लेकिन विचार करने पर मजबूर अवश्य करती है।



अंकित चांद से चांद-खिलौने पर पहुंच गये:

चांद खिलौना तकते थे!
जब यारों हम अच्छे थे!!

रिश्तों में एक बंदिश है!
हम आवारा अच्छे थे!!


आदित्य देखिये पीछे खिसकना सीख रहे हैं!

आलोक पुराणिक लिपिस्टिक को आतंकवाद से जोड़ने लगे:


आतंकवाद का मसला इत्ता आसान नहीं है, जितना समझा जाता है। ए के47 से लेकर लिपस्टिक तक का रिश्ता आतंकवाद की लड़ाई से है। भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवीजी ने जो कहा है कि उसका आशय यह है कि लिपस्टिक पाऊडर लगाकर आतंकवाद का विरोध करने वाली महिलाएं दरअसल आतंकवाद का सपोर्ट उसी तरह से कर रही हैं, जैसे कश्मीर के आतंकवादी करते हैं।



एक लाइना



  1. शनिवार की रात से: होकर इतवार की सुबह का रास्ता जाता है!


  2. एक ने आजीवन कारावास की सजा दी, दूसरे ने बरी कर दिया: यही तो जलवे हैं अदालतों के


  3. हे प्रभु वर दो !:जीवन सबका सुखमय कर दो


  4. आशा है फोन का सदुपयोग होता रहेगा...: पोस्ट लिखने के लिये


  5. चिठेरों के लिए मंदी की मार से बचने के ठोस #8 तरीके : इनका उपयोग अपने जोखिम पर करें


  6. अब रागिनी मॉडर्न हो गई है... : और सिगरेट पीने लगी है


  7. जनता का ध्यान बटाने कि एक और कोशिश : जारी है!


  8. साड़ी में उड़स के चाबियाँ: आवाज करना बन्द कर देती हैं!


  9. अँधेरी रात में दीपक जलाये कौन बैठा है : अपनी दो सौवीं पोस्ट लिखने के लिये!


  10. हमसा बेहया कोई नहीं !: एक सहज स्वीकारोक्ति!


और अंत में



आज छुट्टी होने के बावजूद चर्चा देर से कर पाये।

देर से और संक्षिप्त। आप कह सकते हैं -शार्ट एंड स्वीट। यह भी कि मुसीबत जितनी छोटी हो उतना अच्छा!

परसों कापी प्रोटेक्टेड ब्लाग वाले मसले पर कई टिप्पणियां आईं! मजाक-मजाक में कई लोग सीरियस हो गये और कुछ तल्ख भी।

एक ही मुद्दे पर अलग-अलग लोग अलग-अलग सोचते हैं। अपनी राय को जाहिर करना सबका अधिकार है। लोगों ने किया भी।

सबके जबाब देने का कोई मतलब नहीं समझ में आता मुझे। लेकिन कुछ बातें मैं स्पष्ट करना चाहता हूं!

ऋषभ जी ने लिखा-
लेकिन प्रतिलिपि पर प्रतिबन्ध इस सर्वसुलभता को बाधित नहीं करता. यदि चर्चाकार सचमुच चर्चा में ऐसे चिट्ठों को सम्मिलित करना चाहते तो लिंक देकर अपनी टिप्पणी दे सकते थे. उल्लेख न कर पाने या न करने का कारण प्रतिलिपि पर प्रतिबन्ध को बताना लीपापोती करने जैसा है. एक मीठी सी चुटकी भरी शिकायत के जवाब में चिट्ठाकार को अपनी सामग्री की सुरक्षा जैसे सही कार्य के लिए धिक्कारने लगना एक साधारण पाठक के गले नहीं उतरता . भला कापीराइट की व्यवस्था नेट पर इतनी अवांछित कैसे हो सकती है और इससे हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बाधा कैसे आ सकती है.


ऋषभ जी अपनी समझ में किसी को धिक्कारने का काम मेरी समझ में मैंने नहीं किया। अगर ऐसा किसी को लगा हो तो उसके लिये अफ़सोस है। और जहां तक लीपापोती करने की बात है उसका भी कोई प्रयास नहीं है। यह सच है कि कापी प्रोटेक्टेड चिट्ठों का जिक्र करने में परेशानी होती है। केवल लिंक देने से पोस्ट की जिक्र का मकसद आधा भी नहीं रहता। बहुत कम पाठक लिंक पर जाकर जिक्र की हुई पोस्ट पढ़ते हैं।

ऋषभ जी ने आगे लिखा:
एक व्यक्ति को एक ही ब्लॉग का मालिक होना चाहिए, यह मत नितांत व्यक्तिगत है.अनेक स्थितियों में इसके अपवाद सम्भव हैं. इसे नियम की तरह थोपना उचित नही प्रतीत होता.


यह मेरा ब्लागिंग के पिछले चार सालों के अनुभव के आधार पर व्यक्तिगत मत है। इसे किसी नियम की तरह थोपने की बात ही नहीं है। हमारी समझ से आप जरूरी नहीं कि सहमत हों। आपकी अपनी समझ हो सकती और बेहतर हो सकती है।
हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रचार के लिए अपने लेखन के अतिरिक्त कालजयी रचनाकारों को श्रमपूर्वक नेट पर लाना कोई छोटी साधना नहीं.


आपकी इस बात से कतई इन्कार नहीं है। इसी भावना के चलते तमाम कालजयी रचनाकारों की रचनायें लोग नेट पर प्रस्तुत करते हैं। मैंने भी काम भर की टाइपिंग की हैं। लेकिन मुझे इस बात का दुख है कि मेरी बात
कितने भी अच्छे लेखक की रचना आप अपने ब्लाग पर पेश करें, आपको ’ रचना पढ़वाने के लिये शुक्रिया’ इससे ज्यादा टिप्पणी की आशा नहीं करनी चाहिये।

को आपने इस रूप में लिया कि मैं कालजयी रचनाओं को नेट पर लाने को हीनतर काम मानता हूं। मेरा ऐसा सोचना कतई नहीं है। अगर ऐसा होता तो हम लोग रामचरितमानस, रागदरबारी जैसी कृतियां नेट पर लाने का प्रयास नहीं करते। मैंने सिर्फ़ पाठकीय प्रतिक्रिया की तरफ़ संकेत देने का प्रयास किया था कि कालजयी रचनाओं को पेश करते समय यह आशा नहीं करनी चाहिये कि उस पर व्यापक प्रतिक्रियायें मिलेंगी।
रचनाजी ने लिखा:



I believe that, it should not make any difference by ourselves being outcasted from ' Charcha, ' to any serious reader

Who cares really , check the counter statistics and see how many came to your blog thru charcha . links are there but who really clicks thru them to go to the blog

and in any case the charcha is always limited for few loved ones of the charchakar


रचनाजी, यह आपका अपनी सोच और विश्वास है कि चर्चा से किसी को ’आउटकास्ट’ करने का कोई प्रयास होता है। जिस चर्चाकार को जैसा समझ में आता है वैसी चर्चा करता है। उसके लिये मेरे ख्याल में उसे स्वतंत्र भी होना चाहिये।

यह सच है कि चर्चा के लिंक को कम लोग क्लिक करते हैं। लेकिन चर्चाकार अपनी तरफ़ से प्रयास करता है लिंक दे दे ताकि जो लोग संबंधित पोस्ट देखना चाहें वे देख सकें। चर्चाकार जब लिखता है तब उसके मन यह भरोसा रहता है कि जो वह लिख रहा है उसको कुछ लोग पढ़ेंगे, बिना किसी पूर्वाग्रह के। अगर उसके मन में Who cares का डर रहे तो वह शायद लिख ही न पाये।

तीसरी बात जो आपने लिखी कि चर्चा हमेशा उन लोगों तक सीमित रहती है जिनको चर्चाकार चाहता है। यह बात सच है कि चर्चा पर चर्चाकार की पसंद-नापसंद का असर तो होता ही है। संभव जिसे एक चर्चाकार पसंद करता हो उसे दूसरा पढ़ना भी न चाहता हो। अलग-अलग मूड के चर्चाकार होने का यही फ़ायदा है। यह पसंद नापसंद भी ब्लाग पढ़ते हुये ही बनती है। कोई अपने-अपने पसंदीदा ब्लागर लेकर शुरुआत तो किये नहीं लोग!

बाकी फ़िर कभी। सबका दिन शुभ हो। खुशनुमा हो


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29 टिप्पणियाँ

seema gupta said... @ December 09, 2008 12:02 PM

उदास को समझदार ने कहा
उदास न हो
जरा ऊपर देख
प्यार की झालरों पर है तेरा नाम
उसकी छुहन में है तेरी ही खुश्बू!
" बेहद लाजवाब पंक्तियाँ"

कुश said... @ December 09, 2008 12:21 PM

"यह पसंद नापसंद भी ब्लाग पढ़ते हुये ही बनती है। कोई अपने-अपने पसंदीदा ब्लागर लेकर शुरुआत तो किये नहीं लोग! "

उपरोक्त कथन से अक्षरश: सहमत हू... रही बात लिंक पर ना क्लिक करने की तो होता कुछ ऐसा है(मेरे केस में)की अधिकांश ब्लॉग्स तो पढ़ ही लेता हू.. कुछ जिनके बारे में चर्चा की गयी है और वे मुझे आकर्षित करते है तो मैं ज़रूर पढ़ता हू...

चर्चा को इस रूप में देखे-

मैं जब कपड़े खरीदने जाता हू.. तो एक स्टोर में जाता हू.. वहा बहुत सारे कपड़े होते है पर मैं सारे नही खरीदता हू.. लेकिन इसका ये अर्थ भी नही की बाकी के कपड़े बिकते नही होंगे.. मैं अपनी पसंद के कपड़े ले आता हू.. बाकी लोग अपनी पसंद के.. लेकिन कपड़े सारे बिकते है.. दुकानदार भी कुछ अपनी पसंद के कपड़े डिसप्ले में लगता है.. इसमे कोई हर्ज़ नही..

ज़्यादा कुछ कहूँगा नही.. उम्र में छोटा हू ना इसलिए...

रंजन said... @ December 09, 2008 12:24 PM

काफी विस्तृत चर्चा.. रोचक..

आदित्य को चिट्ठा चर्चा में शामिल करने के लिये आभार..

Rachna Singh said... @ December 09, 2008 12:50 PM

’आउटकास्ट’ ki baat dr amar kii haen anup shukl ji aur mae nae unki bat ko samarthan hee diyaa haen . ’आउटकास्ट’ shabd ko mujh sae jod kar vviaad naa ho isliyae mae clarify kar rahee hun , kavita ki post mae bhi iska clarification issiliya diya haen kyuki kament ko bina proper refrence kae dena galtfhami ko aagey dhaataa haen

Rachna Singh said... @ December 09, 2008 12:55 PM

तीसरी बात जो आपने लिखी कि चर्चा हमेशा उन लोगों तक सीमित रहती है जिनको चर्चाकार चाहता है। यह बात सच है कि चर्चा पर चर्चाकार की पसंद-नापसंद का असर तो होता ही है। संभव जिसे एक चर्चाकार पसंद करता हो उसे दूसरा पढ़ना भी न चाहता हो।

mujeh lagtaa haen ki agr is manch kaa maksad blog par charcha karna haen to kahin na kahin ham sab ko kuch hi blogs ki charcha karkae repetition yaa punraavatii ko band karna hogaa .

sahii haen ki kuch hi log achchaa likhtey haen par unko to sab jaantey hee haen aur padhtey hii haen

pasand sae upar uth kar charcha ho to "neutral " hotee haen .
baar baar kuch hi logo kae naam aatey haen jo ek bhrm banaatey haen jabkii aaj aakdaa shaayad 5000 sae upar haen hindi blogs kaa

ई-गुरु राजीव said... @ December 09, 2008 1:01 PM

उदास को समझदार ने कहा
उदास न हो
जरा ऊपर देख
प्यार की झालरों पर है तेरा नाम
उसकी छुहन में है तेरी ही खुश्बू!
" बेहद लाजवाब पंक्तियाँ"

"यह पसंद नापसंद भी ब्लाग पढ़ते हुये ही बनती है। कोई अपने-अपने पसंदीदा ब्लागर लेकर शुरुआत तो किये नहीं लोग! "

उपरोक्त कथन से अक्षरश: सहमत हू... रही बात लिंक पर ना क्लिक करने की तो होता कुछ ऐसा है(मेरे केस में)की अधिकांश ब्लॉग्स तो पढ़ ही लेता हू.. कुछ जिनके बारे में चर्चा की गयी है और वे मुझे आकर्षित करते है तो मैं ज़रूर पढ़ता हू...

चर्चा को इस रूप में देखे-

मैं जब कपड़े खरीदने जाता हू.. तो एक स्टोर में जाता हू.. वहा बहुत सारे कपड़े होते है पर मैं सारे नही खरीदता हू.. लेकिन इसका ये अर्थ भी नही की बाकी के कपड़े बिकते नही होंगे.. मैं अपनी पसंद के कपड़े ले आता हू.. बाकी लोग अपनी पसंद के.. लेकिन कपड़े सारे बिकते है.. दुकानदार भी कुछ अपनी पसंद के कपड़े डिसप्ले में लगाता है.. इसमे कोई हर्ज़ नही..

ज़्यादा कुछ कहूँगा नही.. उम्र में छोटा हू ना इसलिए...

आज कि चर्चा पढ़कर यही टिप्पणी मन से निकली है पर कमाल है कि मेरी इस टिप्पणी को दो लोग पहले ही आधा-आधा बाँट चुके हैं..... :)
आप लिखते रहें जनाब, मैं लगभग सारे लिंक्स चेक करता हूँ. कभी हमको भी देख लिया करिए, हम भी कभी-कभी कुछ लिख देते हैं.

ई-गुरु राजीव said... @ December 09, 2008 1:05 PM

फुरसतिया चाचा आपको पूरा समर्थन है, आप बेधड़क लिखते चलें.
कोई समस्या हो तो आप मुझे बताइयेगा सब ठीक कर दूँगा. ;)

ई-गुरु राजीव said... @ December 09, 2008 1:08 PM

एक टिप्पणी और देता हूँ अगर आपकी चिटठाचर्चा नहीं होती तो हिन्दी चिट्ठाकारी कब का दम तोड़ चुकी होती.
चच्चा लोग, जिलाए रखने के लिए धन्यवाद.

Gyan Dutt Pandey said... @ December 09, 2008 1:15 PM

मूंगफ़ली के छिलके, त्रिवेणी, लिपिस्टिक और आतंकवाद च्यवनप्राश बनाने की नई रेसिपी?

विनय said... @ December 09, 2008 1:20 PM

कौन मुआ चाबियों के मौन पर चिंतित है, हम तो उनके इंतज़ार में दिन-रात ख़ाबीदा हैं।

बहुत बढ़िया चर्चा!

दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said... @ December 09, 2008 1:23 PM

आप ने रवि को रतलामी से भोपाली कर दिया है। जैसा कि हम को भरोसा है इस नाम परिवर्तन की अनुमति रवि जी से लेने की हिमाकत तो जरूर आप ने नहीं ही की होगी।
अब उस की जरूरत नहीं आप को एक ब्लेक कैट कमांडो भतीजा मिल गया है वह आप के बताने पर किसी को भी ठीक कर सकता है।

और, हिन्दी चिट्ठाकारी केवल अनूप शुक्ल के दम पर चल रही है क्यों कि वे न होते तो चिट्ठाचर्चा न होती और चिट्ठा चर्चा न होती तो हिन्दी ब्लाग ही न होते। सच तो यह है कि अनूप शुक्ल न होते तो दिनेशराय द्विवेदी चिट्ठादुनिया में पैदा ही नहीं होते।

और, इतना होने पर भी आप काबिल भतीजे की तरफ झाँकते नहीं। यह दुनिया की सब से बडी नाइंसाफी है। अब भी सोच कर देख लें, आप पर अभियोग लग सकता है कि इस जमाने में भी आप ने भाई भतीजा वाद से दूर रह कर सब से घृणित अकृत्य किया और सजा में आप को घर/परिवार बदर किया जा सकता है।

रंजना said... @ December 09, 2008 1:35 PM

pasand apni apni khayal apna apna.chahe jo bhi karen apr hame to sadiv hi chiththa charcha bahut sarthak lagti hai.

anitakumar said... @ December 09, 2008 2:01 PM

आज की चर्चा में सबसे अच्छी बात रही गुलाबी गुलाबी फ़ूल और टिप्पणियों के दिए जवाब । आप की पसंद की कविता नहीं दिखी उसे मिस किया

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said... @ December 09, 2008 3:01 PM

अनूप जी, अच्छे काम में भी कुछ लफ़ड़े हो ही जाते हैं। लेकिन आपके बड़े कलेजे को सलाम करता हूँ।

मैं देख रहा हूँ कि चर्चा में शामिल न करने की शिकायत अच्छे परिणाम दे रही है। तो मेरी शिकायत भी हर बार के लिए दर्ज की जाय... आगे की उन सभी चर्चाओं पर जब मुझे आप भूलने वाले हों। :)

Shiv Kumar Mishra said... @ December 09, 2008 3:02 PM

बढ़िया चर्चा है. लिंक न दे पाने के बारे में आपने जो कुछ लिखा है, उससे सहमति है.

MANVINDER BHIMBER said... @ December 09, 2008 3:06 PM

anita ji ki baat se sahmat hu...fool mujhe bhi achche lage......or aaj to charcha mai mai bhi hun.....
charcha achchi rahi

cmpershad said... @ December 09, 2008 4:14 PM

चिट्ठाचर्चा तो है ही चर्चा के लिए। रही बात भिन्न विचारों की, तो चर्चा का मकसद तो वही है कि मंथन हो, विचारों का, ब्लागों का। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि चर्चाकार को उसके चिट्ठे चुनने की आज़ादी हो।
>कुश ने चिट्ठे को कपडा बना दिया और ईगुरू परेशान है कि उनकी टिप्पणी दो लोगों ने चोरी कर ली! इसी लिए ही तो कापीराइट का कारगर प्रावधान है ना:-)
> भई, मुझे तो मनविन्द्र की तरह FOOL पसंद नहीं, कोई अक्ल की चर्चा ही सुहाती है। सब को ईद मुबारक।

डा. अमर कुमार said... @ December 09, 2008 4:19 PM
This post has been removed by the author.
डा. अमर कुमार said... @ December 09, 2008 4:29 PM


सभी बंधुओं से देर से आने के क्षमा..
मुझे लग रहा था, कि शायद आज चर्चा कुर्बानी के लिये गई भयी है..
बहरहाल मेरा भी यह टिप्पणा लादा जाये !

आदरणीय अनूप भाई, चर्चा अच्छी तो है, पर अभी भी कापी-पेस्ट पर अटकी क्यों पड़ी है ?
इस तरह लकीरें पीटे जाते देख कर बहुत भला नहीं लग रहा है..
अब छोड़िये भी.. इस नश्वर संसार में इन बातों का महत्व ही क्या है !
मैं तो शायद ध्यान भी न देता, यदि आपके आब्ज़र्वेशन पर यह पहली टिप्पणी न होती
..
cmpershad said... @ December 07, 2008 10:32 AM
वाह! अच्छा बहाना ढूंढ़ लिया अनूप जी आपने, बचने का। बस कापीराइट कह दिया और चलते बने। भई, ये भी कोई बात हुई, कापीराइट तो चोरों से बचाव के लिए है ना कि आप जैसे

साहू के लिए। है ना कविताजी और अमरजी?
यह भी शायद टिप्पणी मोडरेशन न होने के चलते संभव हुआ होगा !
यह भी ऎसा न हुआ होता, यदि..

मेला मदार मां मुंह खोलि के सिन्नी बांटिन
ससुर का देख के घूंघट निकला डेढ़ हत्था।
को सही संदर्भ में लिया जाता.. पर ठीक है, आपका ही सूत्र है.. मस्त रहिये प्रसन्न रहिये
इसके आगे सतीश भाई, बीच का रास्ता निकालते हुये लोकप्रिय होने के नये पैमाने पर पाइरेसी को उचित ठहराते हैं,

सतीश पंचम said... @ December 07, 2008 10:41 AM
अपने लिखे को प्रचारित-प्रसारित करने के लिये Microsoft की Policy अपनानी चाहिये, जितना ज्यादा नकल होता है, पायरेटेड सॉफ्टवेर बनता है बनने दो, जाने-अनजाने वह

Microsoft का ही प्रचार कर रहे हैं और उससे जुडे हैं। अपने सॉफ्टवेर की लोगों को इतनी आदत डाल दो कि क्या पायरेटेड और क्या ओरिजिनल सब एक बराबर...
पर आगे संभल भी गये
हाँ थोडा कंट्रोल जरूरी है ताकि कोई आपके लिखे को सीधे-सीधे अपने नाम से न छाप डाले।
और मैंने इस कंट्रोल की धज्जी उड़ा दी..
यह लंठई केवल अपने को साबित करने के किया गया है,
इसको मेरी पोस्ट करार देने वाली हर टिप्पणियों ने मेरा बोझ ही बढ़ाया है, जिसका मुझे खेद है !
क्योंकि, मेरा मानना तो यही था कि.

I really admire the much awaited provocation from Anup Ji,
albeit, he did so to defend his lapses, which never were really his liability.
गौर करें, कि which never were really his liability. पर जोर है !
मैंने अपनी पैरवी में नाहक यह कहा भी कि..

एक की कुटिल सलाह थी, कि जो चला गया उसे भूल जाओ ।
महीनों ख़ाक छान कर जुटाये गये जुगाड़ से आपने अपना घर सजाया,
और वह भी आपके नियंत्रण से निकल जाये, तो ?
किंवा इनकी व्यथा पर भी किसी का ध्यान न गया हो, पर ऎसा नहीं हुआ, क्योंकि..
poemsnpuja said... @ December 07, 2008 10:48 PM
बात तो आपने सही उठाई है, पर लोग कई बार कॉपी कर लेते हैं और नाम तक नहीं देते. मैंने अपनी लिखी कविता किसी की ऑरकुट प्रोफाइल में देखी, संदेश भी छोड़ा कि आपने मेरी

कविता छापी है बिना मेरी अनुमति के, उसे हटा दीजिये. मगर थेथर थे, कोई असर नहीं हुआ. अब कॉपीराइट का उल्लंघन हो तो क्या कर सकते हैं, सिवाए गुस्सा होने के.
वैसे अभी तक कॉपी प्रोटेक्ट लगाया तो नहीं है पर सोच रही हूँ की लगा दूँ. अच्छी लगी आज की चर्चा.
बात ख़त्म होते होते भी, ऋषभ जी ने इसको आगे बढ़ाया ..
ऋषभ said... @ December 07, 2008 10:57 PM
ब्लॉग की सामग्री की सर्वसुलभता की वकालत में दम है. लेकिन प्रतिलिपि पर प्रतिबन्ध इस सर्वसुलभता को बाधित नहीं करता. यदि चर्चाकार सचमुच चर्चा में ऐसे चिट्ठों को सम्मिलित

करना चाहते तो लिंक देकर अपनी टिप्पणी दे सकते थे. उल्लेख न कर पाने या न करने का कारण प्रतिलिपि पर प्रतिबन्ध को बताना लीपापोती करने जैसा है.
इस पर भी बात जारी रही, जो कि जागरूकता का संकेत है.
svaritramanyu said... @ December 08, 2008 12:08 AM
I have been surprised to read some of the comments here.

I would think that it is more that obvious for someone to be in favour of the saftey of someone's personal work and not promote

infringement of copyrights and related safeguarding standards, moreover, labelling it as a means of 'knowledge sharing' in the benefit

of the promotion of the root thought is rather quite a bizzare thought.
सो मैंने विषय को कुछ और आगे बढ़ाया
डा. अमर कुमार said... @ December 08, 2008 1:46 AM
Okay, the debate must go on till we yield to a general consistence !
I really admire the much awaited provocation from Anup Ji,
albeit he did so to defend his lapses, which never were really his liability.
But we, the labelled possessive bloggers will certainely continue to protect our work, be it rubbish or worst than rubbish !
I believe that, it should not make any difference by ourselves being outcasted from ' Charcha, ' to any serious reader
आउटकास्टेड बोले तो.. जाति से बाहर.. हुक्का पानी बंद.. पूरी उपेक्षा इत्यादि इत्यादि
इसके कई संदर्भ और विवेचनायें हो सकतीं हैं, पर मेरी वाली तो यही थी !
इसमें रचना जी का यह संदेश कि..

the common blogger does not really care and with such a "intense debate " even the regular " wah wah kya charcha haen brigade " is

missing !
केवल इसी छिपे लिहाज़ को दर्शाता है, जो कईयों के मन में श्रीमती लक्ष्मी मुदगल के जन्मदिन बधाई पर घुमड़ रही होगी ..
सो, हुक्का-पानी बंद तो आज ही दिख रहा है.. कोई वांदा नहीं, भाईजी !!!
अब कोई यह क्यों नहीं समझता, कि मालिक आप हैं, ब्लाग आपका है
यहाँ बधावा चले या सोहर, उनकी बला से ?
बहस का मुद्दा तो यह भी बन सकता है, कि..
चर्चा व्यक्तिपरक होनी चाहिये या विषयपरक ?
मेरा तो सुझाव है, कि केवल पोस्ट के शीर्षक का लिंक देकर चिट्ठों की चर्चा ही होनी चाहिये..
ताकि नये पुराने स्त्री ब्लाग पुरुष ब्लाग और भी बहुत सारे भेद-प्रभेद का लोचा ही न रहे
जबकि मैंने पहले ही हार मान ली थी..

मैं हिन्दी ब्लागिंग में कोई क्रांति नहीं लाने जा रहा..
पर, इसके पुरोधाओं और पंचायत के सम्मुख नारा तो लगा सकता हूँ, न ?
मूझे विश्वास है, कि लोकतंत्र पर पोस्ट लिखने वाले इसमें यकीन भी रखते होंगे !

अब, छोड़िये.. जाने भी दीजिये.. जैसे चलता है, चलने दीजिये !
दूसरे मौज़ ले रहे होंगे कि,.. काहे से कि उनको हम भ्रष्टन के .. भ्रष्ट हमारे, पढ़ने में ही अच्छा लगता है
बख़्स मेरी ख़ाला मैं लंडूरा भला..
अब चला और भी मुकाँ हैं, इस ज़हाँ के आगे
यदाकदा यहाँ टिप्पणी करते रहने की इज़ाज़त चाहूँगा
तब तक ब्लागर पर मातृभाषा की सेवा और आत्मरति में फ़र्क करने की तमीज़ सिखाने वाला कोई गुरू तलाशता हूँ

जय हिन्दी, जय भारत !




नोट : अभी अपनी ही टिप्पणी देख कर यह लग रहा है,
कि इतने श्रम में तो एक पोस्ट तैयार हो जाती,

पर.. अच्छा है, यहाँ हिन्दी मईया की चम्पी करने वाले बहुत से भाई हैं'
जो यदाकदा माता की सेवा का एहसान एक दूसरे पर ज़ताते नहीं थकते !

हाँ, प्रमाणस्वरूप इसे अपने किसी पेज़ पर स्थान अवश्य दूँगा

Rachna Singh said... @ December 09, 2008 4:30 PM

cmpershad ji ek fools paradise bhi hota haen shyaad manvinder ko yahaan wo hii deekha ho !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

Rachna Singh said... @ December 09, 2008 4:42 PM

अगर उसके मन में Who cares का डर रहे तो वह शायद लिख ही न पाये।
who cares का मतलब "क्या फरक पड़ता हैं " अगर किसी ब्लॉगर के ब्लॉग कि चर्चा ना भी हो क्युकी यहाँ दिये हुए लिंक्स को बहुत कम ब्लॉगर खोलते हैं

अभिषेक ओझा said... @ December 09, 2008 4:44 PM

"लिपिस्टिक और आतंकवाद" बड़ा बढ़िया शीर्षक लगा अंत तक दोनों में कुछ कोरिलेशन की तलाश रही... लेकिन कुछ मिला नहीं :-)

डॉ .अनुराग said... @ December 09, 2008 6:22 PM

कुछ विषयों पर फौरी टिप्पणी करने का मन नही करता जैसे चोखेर बाली का कल का विषय ..पर मुझ जैसे प्राणी जिसे साथ साथ अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ भी जारी रखना है (क्लीनिक से ही पोस्ट ओर टिप्पणी लिखता हूँ )आज चर्चा पर कुछ ओर टिपियाना चाहता था इसलिए सोचा शाम को जल्दी आकर पहले यहाँ टीपीगे ,क्यूंकि लगा रविवार को कोई अच्छा विषय था जो मुझसे मिस हो गया है ,रविवारी अवकाश के कारण ...आदरणीय गुरुवर ने हालाँकि अपनी चिर-परिचित शैली में काफ़ी कुछ कह दिया है...
लेकिन क्या चिटठा चर्चा करना वाकई सरल है ?कई सौ मूड को एक ही साथ एक या दो घंटे में पकड़ना ....उन्हें खंगालना या निष्पक्ष भावः से यहाँ रख देना .....क्या वाकई सरल है.....?किसी पोस्ट की उम्र कितनी होती है ?२४ घंटे ?कितनी ऐसी पोस्ट है जो हम देर तक कई दिनों तक याद रख पाते है ,जिस तरह चिट्ठाकार भी रोज रोज लिखकर अपने लिखे के दोहराव से बचना चाहता है .शायद चर्चा करने वाला चिट्ठाकार भी सोचता हो.......निजी तौर पर मै लेख को पढता हूँ लेखक को नही....बड़े नाम वालो से तो उल्टा ब्लोगिंग में मेरा भंग हुआ है ....ब्लोगिंग क्या है अभिव्यक्ति ?दरअसल ये समय की अभिव्यक्ति है ... आपके रोजाना के जीवन से उठाया गया समय ....अख़बार के पन्ने से ,सड़क से ,किसी रेलवे स्टेशन से ....हवाई अड्डे से .एक नन्हे बच्चे से उधार लिया समय या रात की खामोशी में आहटो को चुन चुन कर क्रम बढ़ करता समय .....किस नियम या विधा में बांधेगे इसे ? कोई मन चार शब्द लिखता है.कोई मन धड़ धड उन्गुलिया चलाता है ......कही पढ़ा था किसी का संस्मरण किसी का आज होता है..... किस समय पर आप जीवन के कौन से पायदान पर खड़े है...शायद शब्द उलीच कर आप सांत्वना महसूस करे .....यही ब्लोगिंग है...

चांद खिलौना तकते थे!
जब यारों हम अच्छे थे!!

रिश्तों में एक बंदिश है!
हम आवारा अच्छे थे!!
कौन है ये अंकित ?नही जानता ..पर ये पढ़कर जानने की इच्छा हुई....यही कमाल है ब्लोगिंग का !

अपने पसंदीदा लोगो से उबरने की ईमानदार कोशिश मैंने चर्चा में देखी है...धीरे धीरे ही सही पर हुई है ...उम्मीद करता हूँ ओर होगी .......कविता जी ने कुछ दिन पहले इस चर्चा को नए आयाम दिए है....बस कभी कभी लगता है .एक ही दिन में दो चर्चा न होकर ...उसी सार्थक चर्चा को आगे बढाया जा सकता है ..जैसे की मुझे लगा ये एक ऐसा मंच है जहाँ पर आप स्वस्थ बहस को जारी रख सकते है.....अपनी भाषा की शालीनता ओर विषय की सार्थकता ..को मद्देनजर रखते हुए ....आशा करता हूँ लोग अब फौरी टिपण्णी छोड़ खुले मन से अपनी बात कहेगे ...लगता है के बोर्ड पर हाथ ज्यादा चल गए है .....बिना एडिट किए ठेल रहा हूँ...कही कुछ ग़लत लिखा हो तो मुआफ करे

ताऊ रामपुरिया said... @ December 09, 2008 8:26 PM

आज की चर्चा को टिपणी चर्चा कहना ज्यादा मुफ़ीद होगा ! मैं समझता हूं की आज जो टिपणियों का स्वरूप देखा है उसको देखते हुये ये चिठ्ठा चर्चा अपने असली स्वरुप तक अवश्य पहुन्चेगी !

यहां कुछ टिपणिकारों का मत है कि चर्चाकार अपनी पसन्द को महत्व देते हैं ! और जो नामचीन ब्लाग हैं उनकी क्यों चर्चा की जाये ?

मेरा इस विषय मे मानना है कि तीन घन्टे की फ़िल्म मे भी कुछ मसाला डाला जाता है उसी तरह से चर्चा को भी पठनिय बनाने के लिये मसाला चाहिये होता है ! उसमे एक लाईना का छोंक भी लगता है !
और अगर किसी को भ्रम हो तो फ़ुर्सतिया जी वाला ह्युमर हटा कर की गई या जाने वाली चर्चा का ट्रेफ़िक जान्च ले !

बिना नमक की तो रोटी भी अच्छी नही लगती !

शुकल जी आज आपने फ़ोन पर शानदार हथियार पकडा दिया ! आज तो बस सारे काम काज शुद्ध हिन्दी मे कर रहे हैं ! और ये टिपणी भी सिधे टीपणी बक्से मे लिख रहे हैं ! आज तो ऐसा लग रहा है जैसे बचपन मे कोई खिलोना मिलते समय लगता था !
मजा आ गया !

राम राम !

अनुपम अग्रवाल said... @ December 09, 2008 10:16 PM

baakee sab to theek hai .ye andha baante revree ,fir apnon ko de .
ye aapne taau ko hathiyaar kaun saa pakraa diya.gyan baaantiye kyonki usse badhtaaa hai .

cmpershad said... @ December 09, 2008 10:25 PM

कितनी ऐसी पोस्ट है जो हम देर तक कई दिनों तक याद रख पाते है - अनुरागजी का यह कथन सही है। दैनिक पत्र की तरह वह लिटरेचर इन हरी- हो जाता है। परंतु आज की चर्चा और उस पर की गई टिप्पणियां बहुत सोच समझ कर की गई हैं। टिप्पणी पर चर्चा टिप्पणी से ही हो जाती तो शायद कापीराइट की बात भी इतना तूल नहीं पकडती जितना आज अनूप शुक्ल जी ने शर्माजी की टिप्पणी को लेकर चर्चा के ‘अंत’ में लिखा है। जो बात दो दिन पहले खत्म हो गई थी, कदाचित इसके कारण फिर नये सिरे से ‘बात दूर तक चली गई’। इस चर्चा को ताऊ जी का आशीर्वाद भि मिला है रोटी में नमक की तरह तो मज़ा आ ही जाएगा। राम राम।

आभा said... @ December 10, 2008 12:07 AM

कुश ने सटीक समझाया,दिनेश जी और रचना जी से सहमत हूँ, हाँ कई बार आज यहाँ पर डा अनुराग की स्थति जैसा मै भी मेरे साथ होती है...

ऋषभ said... @ December 10, 2008 12:28 AM

सूचनागर्भ , संतुलित और अत्यन्त रोचक चर्चा पर बधाई!
इस बहाने हुआ वैचारिक मंथन भी सार्थक है.
संवाद बना रहे.

कविता वाचक्नवी said... @ December 10, 2008 1:57 AM

मझे अब तक यह समझ नहीं आया कि टिप्पणियों के कम- ज्यादा होने की बात आई कहाँ से और फिर उनका प्रसंग मेरे साथ जोड़ कर आरम्भ क्यों किया गया? और उस बहाने मुझे क्या, कितना, कैसा,कब, कहाँ लिखना है आदि का आज तक चला आ रहा गणित या सीधे सीधे कहें तो ब्ॊगिंग की तमीज किस लिए सिखाई गई/जा रही है?

मैं मूढ़मति हूँ, इसलिए ४थे दिन तक समझ नहीं पाई हूँ,कोई हिन्दी की सेवा में अपना जीवन देने वाला वीरपुरुष बतलाएगा?

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